तहलका न्यूज,बीकानेर। चुनावी मौसम इन दिनों अपने शबाब पर है। सियासी बिसात बिछ चुकी है। चुनाव में तमाम राजनीतिक दलों की तरह उनके नेताओं में भी सियासी अरमान जगते हैं। वे सभी इसी मौसम में अपने लिए बड़ी जिम्मेदारी चाहते हैं और पार्टी के समर्थन से राजनीति की अगली सीढ़ी चढऩे की कोशिश करते हैं। वे टिकट और पद के लिए अपना-अपना दावा पेश करते हैं और जब उनके दावे को मान्यता नहीं मिलती तो बगावत पर उतर आते हैं। इस बार भी कुछ ऐसा ही सीन देखने को मिल रहा है। सभी दलों को अपने अंदर ऐसे नेताओं के बागी तेवर का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे में सवाल उठता है कि इनकी बगावत किसी राजनीतिक दल के प्रदर्शन पर कितना असर डालती है? अभी तक जो ट्रेंड सामने आया है, उस हिसाब से इसके मिले-जुले परिणाम दिखते रहे हैं। टिकट कटने के बाद इससे वंचित नेता अपने-अपने दलों के नेतृत्व के सामने इसका तीखा विरोध कर रहे हैं। कई जगह प्रदर्शन काफी उग्र हो गया। अंदरूनी बगावत का शिकार कांग्रेस और भाजपा दोनों ही पार्टियां हैं। इस बगावत से बचने के लिए दोनों दलों को अपने उम्मीदवारों की लिस्ट जारी करने में न सिर्फ काफी देर कर रही है। बल्कि कुछ जगहों पर तो विरोध इतना बढ़ा कि टिकट नहीं मिलने से नाराज नेताओं ने पार्टी विरोधियों के खिलाफ सीधा मोर्चा तक खोल दिया है। उधर राजनीतिक दलों को उम्मीद है कि जैसे-जैसे चुनाव प्रचार तेज होगा,बगावत की आंच कम होती जाएगी। वैसे रूठे और बागी नेताओं को मनाने के लिए दोनों दलों के शीर्ष नेता खुद उनसे संपर्क बनाए हुए हैं और सीधी बातचीत भी कर रहे हैं। लेकिन बात अगर फिर भी न बनी, तो उसके बाद क्या सूरत निकलेगी- इसे लेकर इन दलों के कैंप में चिंता की धुंध अभी से साफ देखी जा सकती है। दरअसल दिक्कत तब और बढ़ जाती है जब ये बागी नेता निर्दलीय या किसी दूसरे छोटे दल से खुद उम्मीदवार बन जाते हैं। छोटे दल ऐसे ही नेताओं को टिकट देकर अपनी अहमियत साबित कर रहे हैं। ऐसी सूरत में जब ये मैदान में उतरते हैं तो इनका निशाना प्राथमिक रूप से अपने पूर्व दल पर ही होता है। उस दल से पुराना संबंध होने के कारण वे उनके वोटरों को अपने साथ ले जाने में भी कुछ हद तक सफल हो जाते हैं। इसी कारण ऐसे नेताओं की बगावत को नजरअंदाज करना राजनीतिक दलों के लिए अक्सर बहुत भारी पड़ता रहा है। यही समस्या जिले की कई सीटों पर इस चुनावों में भी देखी जा रही है।
बदले है थोड़े हालात
वैसे जानकारों के मुताबिक हाल के समय में हालात थोड़े बदले हैं। आजकल के चुनावों में पार्टी और चेहरों पर केंद्रित सीधे मुकाबले होने लगे हैं। ऐसे में बागी चेहरे के लिए किसी का खेल बिगाडऩा या बनाना दिनों-दिन मुश्किल होता जा रहा है। मसलन, बीजेपी को कमल निशान और मोदी के चेहरे पर ही वोट मिल रहे हैं,और कई बार उम्मीदवार गौण साबित हो जाता है। कुछ मौकों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो सार्वजनिक रैली में जनता से अपील कर चुके हैं कि सभी सीटों पर पार्टी उम्मीदवार को वोट देते हुए लोग उसमें उनका ही चेहरा देखें, उनके ही वादे याद रखें। 2014 के बाद पीएम मोदी का चेहरा ऐसे बागी चेहरों को काउंटर करने में काफी हद तक सफल रहा है। क्षेत्रीय दलों में पहले ही नेता के चेहरे पर वोट पड़ते रहे हैं। हाल के सालों में कांग्रेस के लिए ऐसी समस्या जरूर रही है जहां पार्टी के पास ऐसा कोई वोट जिताऊ चेहरा नहीं रहा है। ऐसे में पार्टी को बगावतों की कीमत भी चुकानी पड़ी है। पिछली बार 2018 के चुनाव इसके उदाहरण है। जब कांग्रेस के काफी बागी जीतकर विधानसभा पहुंचे। उसी से सबक लेकर कांग्रेस इस चुनाव में फूंक फंूककर कदम रख रही है।
जिले में भी यही स्थिति
वैसे बीकानेर जिले की बात करें तो कई सीटों पर स्थिति अभी तक साफ नहीं है। लेकिन बगावत की आग से यहां भी पार्टी के उम्मीदवार झुलसते नजर आएंगे। ये बात अलग है कि चुनावों में शत्रु का शत्रु मित्र वाली स्थिति होती है। इसलिए कई दावेदार खुद चुनाव लड़ने की हिम्मत न जुटाकर अपने समर्थकों की आड़ में अन्य दलों को समर्थन की बात करते नजर आ रहे है। ऐसे में अब देखने वाली बात तो यह होगी कि क्या समर्थक उनके इस जंगिया एलान को स्वीकार करते है। वैसे बगावत की चिंगारी से अब तक बीकानेर पूर्व,पश्चिम,कोलायत,लूणकरणसर और श्रीडूंगरगढ़ के परिणामों पर कोई असर पड़ेगा या पार्टियों के सीधे मुकाबले में ये बगावती ठंडे बस्तों में चले जाएंगे। यह तो परिणाम ही बताएंगे।